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1 " उन दिनों (आज़ादी के पहले) जमींदार और बड़े भूमिपति ग्रामीण जनता के मुख्य शोषक थे इसलिए ग्रामीण जनता की मुक्ति के लिए उनके खिलाफ़ संघर्ष छेड़ना वामपंथी आंदोलन का मुख्य मुद्दा था| जमींदारों और भूमिपतियों की कानूनी समाप्ति के बाद गांवो के शोषण के केंद्रबिंदु बदल गये हैं| उनके खिलाफ़ लड़ने के लिए किसानों को भी बड़े पैमाने पर संगठित करने की जरुरत बढ़ती गयी है|... इस समझदारी के बाद किसान-मजदूर अंतर्विरोध का समाधान सहज लगता है "
― Kishen Pattanayak
2 " सभ्यताओं से संघर्ष की इच्छा शक्ति के अभाव में देश के सारे राजनैतिक दल अप्रासंगिक और गतिहीन हो गए हैं। जनता के आन्दोलन को दिशा देने की क्षमता उनमें नहीं रह गई है। जन-आन्दोलनों का केवल हुंकार होता है, आन्दोलन का मार्ग बन नहीं पाता। जहाँ क्षितिज की कल्पना नहीं है, वहाँ मार्ग कैसे बने? इस कल्पना के अभाव में क्रान्ति अवरुद्ध हो जाती है। "
3 " दोगली मानसिकता की यह प्रवृत्ति होती है कि वह किसी पद्धति की होती नहीं और खुद भी कोई पद्धति नहीं बना सकती। दूसरी विशेषता यह होती है कि वह केवल बने-बनाये पिंडों को जोड़ सकती है, उनमें से किसी को बदल नहीं सकती। तीसरी विशेषता यह है कि वह आत्मसमीक्षा नहीं कर सकती। आत्मसमीक्षा करेगी, तो बने-बनाए पिंडों से संघर्ष करना पड़ेगा। इसलिए बाहर की तारीफ से गदगद हो जाती है और आलोचना को अनसुना कर देती है। इसकी चौथी विशेषता यह है कि वह मौलिकता से डरती है। एक दोगले व्यक्तित्व का उदाहरण होगा - 'श्री आरक्षण-विरोधी जनेऊधारी कम्प्यूटर विशेषज्ञ'! "
4 " भारतीय समाज की वस्तुस्थिति ऐसी है कि यहाँ आर्थिक विषमता और सामाजिक विषमता को अलग-अलग मानकर कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं चलाया जा सकता है| जो लोग सामाजिक विषमता को महत्त्व न देकर सिर्फ आर्थिक विषमता को महत्त्व देते हैं या जो लोग इसका उल्टा करते हैं we निश्चय ही परिवर्तन नहीं चाहते हैं "
5 " संस्कार से किसान गैर-राजनीतिक है, इसलिए राजनीति या व्यवस्था-परवर्तन के के लिए उसे तैयार करना एक क्रांतिकारी काम है| भूमिहीन और भूमिधर किसानों में जो आपसी विद्वेष और संदेह है ... (उसको) सुलझाने के लिए दोनों हिस्सों में व्यवस्था-विरोधी चेतना पैदा करनी होगी "
― Kishen Pattanayak , किसान आंदोलन : दशा और दिशा (Peasant Movement: Status and Directions)
6 " जब समाज का कोई हिस्सा अपने आप (किसी राजनीतिक दल के प्रयास के बिना और कम चेष्टा में) विद्रोह करता है, ऐसा आंदोलन प्रबल रूप धारण करता है, तो उससे ये उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह अपने आप क्रांतिकारी दिशा पकड़ लेगा| ऐसे विद्रोह का नेतृत्व स्वाभाविक ढंग से उस वर्ग के संपन्न लोगों के हाथ में होगा जो अक्सर यथास्थिति में ही अपना कल्याण ढूंढते हैं| उनकी पहली इच्छा होती है कि प्रचलित ढाँचे में ही उनको कुछ मिल जाए "