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1 " गृहस्थ नारी की मंगलमयी कृति का भक्त हूँ। वह इस साधारण संन्यास से भी दुष्कर और दम्भ-विहीन उपासना "
― जयशंकर प्रसाद , तितली
2 " सारे अंग को इस तीखी चितवन से देखा, जैसे कोई सौदागर किसी जानवर को खरीदने से पहले उसे देखता हो। "
3 " इन्हें चक्रवाक कहते हैं। इनके जोड़े दिन-भर तो साथ-साथ घूमते रहते हैं, किन्तु संध्या जब होती है, तभी ये अलग हो जाते हैं। फिर ये रात-भर नहीं मिलने पाते। "
4 " आवश्यकता से पीड़ित प्राणी कितनी ही नारकीय यंत्रणाएँ सहता हे। उसकी सव चीजों का सौदा मोल-तोल कर लेने में किसी को रुकावट नहीं। "
5 " मनुष्य पर मानसिक नियन्त्रण उसकी विचार-धारा को एक सँकरे पथ से ले चलता है—वह जीवन के मुक्त विकास से परिचित नहीं होता? "
6 " इस गुरुडम में कोई कल्याण की बात समझ में नहीं आती। मनुष्य को अपने व्यक्तित्व में पूर्ण विकास करने की क्षमता होनी चाहिए। "
7 " अन्नों को पका देने वाला पश्चिमी पवन सर्राटे से चल रहा था। "
8 " फागुन की हवा मन में नई उमंग बढ़ाने वाली थी, सुख-स्पर्श थी। "
9 " जंगली पवन वस्त्रों से उलझता था। "
10 " पीली-पीली धूप, तीसी और सरसों के फूलों पर पड़ रही थी। वसन्त की व्यापक कला से प्रकृति सजीव हो उठी थी। "
11 " फूलों की गन्ध उस वातावरण में उत्तेजना-भरी मादकता ढाल रही थी। "
12 " मेरी सुविधाएँ मुझे मनुष्य बनाने में समर्थ हुई हैं कि नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता; किन्तु मेरी सम्मति में जीवन को सब तरह की सुविधा मिलनी चाहिए। यह मैं नहीं मानता कि मनुष्य अपने सन्तोष से ही सम्राट् हो जाता है और अभिलाषाओं से दरिद्र। "
13 " यौवन के व्यंजन दिखायी देने से क्या हुआ, अब भी उसका मन दूध का धोया है। उसे लड़की कहना ही अधिक संगत होगा। "
14 " राग-विरागपूर्ण जन-कोलाहल में दिन और रात की सन्धि, अपना दुःख-सुख मिलाकर एक तृप्ति-भरी उलझन से संसार को आन्दोलित कर रही है। "
15 " पशुओं को खाते-खाते मनुष्य, पशुओं के भोजन को जगह भी खाने लगे। ओह! कितना इनका पेट बढ़ गया "
16 " जीवन लालसाओं से बना हुआ सुन्दर चित्र है। उसका रंग छीनकर उसे रेखा—चित्र बना देने से मुझे सन्तोष नहीं होगा। उसमें कहे जाने वाले पुण्य—पाप की सुवर्ण कालिमा, सुख-दुःख की आलोक-छाया और लज्जा-प्रसन्नता की लाली-हरियाली उद्भासित हो। और चाहिए उसके लिए विस्तृत भूमिका, जिसमें रेखाएँ उत्सुक्त होकर विकसित हों। "
17 " जीवन का सत्य है, प्रसन्नता। वह प्रसन्नता और आनन्द की लहरों में निमग्न "
18 " ठीक गाँव के समीप रेलवे-लाइन के तार को पकड़े हुए उस बालक-सी थी, जिसके सामने से डाक-गाड़ी भक्-भक् करती हुई निकल जाती हैं—सैकड़ों सिर खिड़कियों से निकले रहते हैं, पर पहचान में एक भी नहीं आते, न तो उनकी आकृति या वर्णरेखाओं का ही कुछ पता चलता है। "
19 " प्राणी का प्राणी से जीवन—भर के सम्वन्ध में बँध जाना दासता समझती हूँ; उसमें आगे चलकर दोनों के मन में मालिक वनने की विद्रोह-भावना छिपी रहती है। विवाहित जीवनों में, अधिकार जमाने का प्रयत्न करते हुए स्त्री-पुरुष दोनों ही देखे जाते हैं। "
20 " स्त्रियों को उनकी आर्थिक पराधीनता के कारण जब हम स्नेह करने के लिए बाध्य करते हैं, तब उनके मन में विद्रोह की सृष्टि भी स्वाभाविक है! आज प्रत्यके कुटुम्ब उनके इस स्नेह और विद्रोह के द्वन्द्व से जर्जर है "