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रश्मिरथी QUOTES

2 " दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!


दुर्योधन वह भी दे ना सका,

आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,

जो था असाध्य, साधने चला।
जन नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है।


हरि ने भीषण हुंकार किया,

अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।


यह देख, गगन मुझमें लय है,

यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,

मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,

संहार झूलता है मुझमें। "

Ramdhari Singh 'Dinkar' , रश्मिरथी

3 " प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.

होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण.
नर वैभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.

चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.

उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं. "

Ramdhari Singh 'Dinkar' , रश्मिरथी

4 " यह देख, गगन मुझमें लय है,

यह देख, पवन मुझमें लय है,

मुझमें विलीन झंकार सकल,

मुझमें लय है संसार सकल।

अमरत्व फूलता है मुझमें,

संहार झूलता है मुझमें।


'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,

भूमंडल वक्षस्थल विशाल,

भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,

मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,

सब हैं मेरे मुख के अन्दर।


'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,

चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।

शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,

शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।


'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,

शत कोटि जिष्णु जलपति, धनेश,

शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,

शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,

हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।


'भूलोक, अतल, पाताल देख,

गत और अनागत काल देख,

यह देख जगत का आदि-सृजन,

यह देख, महाभारत का रण,

मृतकों से पटी हुई भू है,

पहचान, कहाँ इसमें तू है। "

Ramdhari Singh 'Dinkar' , रश्मिरथी

6 " तुच्छ है राज्य क्या है केशव?
पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,
कुछ चाकचिक्य, कुछ क्षण विलास |

पर वह भी यहीं गँवाना है,
कुछ साथ नहीं ले जाना है |


'मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
कंचन का भार न ढोते हैं,
पाते हैं धन बिखराने को,
लाते हैं रतन लुटाने को |

जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं |


'प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है |

बसता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में |


'होकर समृद्धि-सुख के अधीन,
मानव होता नित तप: क्षीण,
सत्ता, किरीट, मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज-हरण.

नर विभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है |


'चाँदनी, पुष्प-छाया में पल,
नर भले बने सुमधुर, कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिये बिना,
आतप अंधड़ में जिये बिना,

वह पुरुष नहीं कहला सकता,
विघ्नों को नहीं हिला सकता |


'उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातों में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,

वे ही फणिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं |


'मैं गरुड़ कृष्ण ! मैं पक्षिराज,
सिर पर ना चाहिए मुझे ताज |
दुर्योधन पर है विपद घोर,
सकता न किसी विधि उसे छोड़,

रण-खेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको "

Ramdhari Singh 'Dinkar' , रश्मिरथी

15 " यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।

अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।


'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।


'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।

शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।


'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।


'भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,

मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है। "

Ramdhari Singh 'Dinkar' , रश्मिरथी