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" प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.

होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण.
नर वैभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.

चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.

उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं. "

Ramdhari Singh 'Dinkar' , रश्मिरथी


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Ramdhari Singh 'Dinkar' quote : प्रासादों के कनकाभ शिखर,<br />होते कबूतरों के ही घर,<br />महलों में गरुड़ ना होता है,<br />कंचन पर कभी न सोता है.<br />रहता वह कहीं पहाड़ों में,<br />शैलों की फटी दरारों में.<br /><br />होकर सुख-समृद्धि के अधीन,<br />मानव होता निज तप क्षीण,<br />सत्ता किरीट मणिमय आसन,<br />करते मनुष्य का तेज हरण.<br />नर वैभव हेतु लालचाता है,<br />पर वही मनुज को खाता है.<br /><br />चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,<br />नर भले बने सुमधुर कोमल,<br />पर अमृत क्लेश का पिए बिना,<br />आताप अंधड़ में जिए बिना,<br />वह पुरुष नही कहला सकता,<br />विघ्नों को नही हिला सकता.<br /><br />उड़ते जो झंझावतों में,<br />पीते जो वारि प्रपातो में,<br />सारा आकाश अयन जिनका,<br />विषधर भुजंग भोजन जिनका,<br />वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,<br />धरती का हृदय जुड़ाते हैं.