Home > Author > Munshi Premchand
161 " बड़े आदमियों की ईर्ष्या और वैर केवल आनंद के लिए है। "
― Munshi Premchand , गोदान [Godaan]
162 " जीवन में होरी ने बड़ी-बड़ी चोट सही थी, मगर यह चोट सबसे गहरी थी। आज उसके ऐसे दिन आ गये हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती है और उसमें इनकार करने का साहस नहीं है। ग्लानि से उसका सिर झुक गया। "
163 " जैसे कोई कुत्ता किसी नये गांव में जाता है। "
― Munshi Premchand , Nirmala
164 " समाज के नाते आदमी का अगर कुछ धरम है, तो मनुष्य के नाते भी तो उसका कुछ धरम है। समाज-धरम पालने से समाज आदर करता है; मगर मनुष्य-धरम पालने से तो ईश्वर प्रसन्न होता है। "
165 " धन मानव जीवन में अगर सर्वप्रधान वस्त नहीं, तो वह उसके बहुत निकट की वस्तु अवश्य है। "
166 " दु:ख का भार तो वह अकेली उठा सकती थी। सुख का भार तो अकेले नहीं उठता। "
167 " प्रेम जब आत्म-समर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है, उसके पहले अय्याशी है। "
168 " जिसे असाध्य रोग ने ग्रस लिया हो, वह खाद्य-अखाद्य की परवाह कब करता है? "
169 " कैसे इस बूढ़े का हियाव पड़ा? "
170 " बेशक, उसमें समाई होती, तो रूपा का ब्याह किसी जवान लड़के से और अच्छे कुल में करता, "
171 " लोग हँसेंगे; लेकिन जो लोग ख़ाली हँसते हैं, और कोई मदद नहीं करते, उनकी हँसी की वह क्यों परवा करे। "
172 " खुली हवा में चरित्र के भ्रष्ट होने की उससे कम संभावना है, जितना बन्द कमरे में। "
173 " इच्छाओं को जीवन का आधार बनाना बालू की दीवार बनाना है । धर्म-ग्रंथों में आत्म-दमन और संयम की अखंड महिमा कही गई है, बल्कि इसी को मुक्ति का साधन बताया गया है । इच्छाओं और वासनाओं को ही मानव पतन का मुख्य कारण सिद्ध किया गया है और मेरे विचार में यह निर्विवाद है । ऐसी दशा में पश्चिम वालों का अनुसरण करना नादानी है । प्रथाओं की गुलामी इच्छाओं की गुलामी से श्रेष्ठ है "
― Munshi Premchand , प्रेमाश्रम [Premashram]
174 " लोक-निंदा के भय से अपने प्रेम या अरुचि को छिपाना अपनी आत्मिक स्वाधीनता को खाक में मिलाना है । मैं उस स्त्री को सराहनीय नहीं समझता जो एक दुराचारी पुरुष से केवल इसलिए भक्ति करती है कि वह उसका पति है । वह अपने उस जीवन को, जो सार्थक हाे सकता है, नष्ट कर देती है । यही बात पुरुषों पर भी घटित हो सकती है "
175 " वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है, लेकिन पवन के प्रबल झोकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भांति प्रणय भी दुःख के आघातों ही से विकास पाता है। "
176 " जब हमारे ऊपर कोई बड़ी विपत्ति आ पड़ती है, तो उससे हमें केवल दुःख ही नहीं होता, हमें दूसरों के ताने भी सहने पड़ते हैं। "
177 " हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गये। ज़रा मूड़ पर एक गट्ठा लादकर लाओ "
178 " वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याहन का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं, और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी है। उसके बाद विश्राममय सन्ध्या आती है, शीतल और शान्त, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं जहाँ नीचे का जनरूरव हम तक नहीं पहुँचता। "
179 " आत्मवाद तथा अनात्मवाद की ख़ूब छान-बीन कर लेने पर वह इसी तत्व पर पहुँच जाते थे कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच में जो सेवा-मार्ग है, चाहे उसे कर्मयोग ही कहो, वही जीवन को सार्थक कर सकता है, वही जीवन को ऊँचा और पवित्र बना सकता है। किसी सर्वज्ञ ईश्वर में उनका विश्वास न था। यद्यपि वह अपनी नास्तिकता को प्रकट न करते थे, इसलिए कि इस विषय में निश्चित रूप से कोई मत स्थिर करना वह अपने लिए असंभव समझते थे; "
180 " विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो, मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है। "