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Jibanananda Das QUOTES

41 " স্বপ্ন
পান্ডুলিপি কাছে রেখে ধূসর দীপের কাছে আমি
নিস্তব্ধ ছিলাম ব'সে;
শিশির পড়িতেছিলো ধীরে-ধীরে খ'সে;
নিমের শাখার থেকে একাকীতম কে পাখি নামি

উড়ে গেলো কুয়াশায়, — কুয়াশার থেকে দূর-কুয়াশায় আরো।
তাহারি পাখার হাওয়া প্রদীপ নিভায়ে গেলো বুঝি?
অন্ধকার হাৎড়ায়ে ধীরে-ধীরে দেশলাই খুঁজি;
যখন জ্বালিব আলো কার মুখ দেখা যাবে বলিতে কি পারো?

কার মুখ? —আমলকী শাখার পিছনে
শিঙের মত বাঁকা নীল চাঁদ একদিন দেখেছিলো তাহা;
এ-ধূসর পান্ডুলিপি একদিন দেখেছিলো, আহা,
সে-মুখ ধূসরতম আজ এই পৃথিবীর মনে।

তবু এই পৃথিবীর সব আলো একদিন নিভে গেলে পরে,
পৃথিবীর সব গল্প একদিন ফুরাবে যখন,
মানুষ র'বে না আর, র'বে শুধু মানুষের স্বপ্ন তখনঃ
সেই মুখ আর আমি র'বো সেই স্বপ্নের ভিতরে। "

Jibanananda Das , Selected Poems

43 " একদিন মা বেঁচেছিলেন। মা খুব স্নেহ সরসতর মানুষ ছিলেন; কিন্তু তখনই কলকাতায় চাকরি শুরু করে মার সঙ্গে শ্যামবাজারের একটা একতলা বাড়িতে এক কোঠায় যে দিনগুলো কাটিয়েছে সে- প্রত্যেকটা দিনের কথা মনে আছে তার। সহজ কঠিন মৃদু নিরেস, কেমন নির্জলা জলীয় দিনগুলো জীবনের। ভাবত, মাকে মানুষ সূতিকাঘরের থেকেই পায় কি না- রোজই পায়- অনেক পায়- জননীগ্রন্থি কেটে যায় তাই শিগগিরই- নতুনত্ব হারিয়ে যায়। ভাবত, মানুষের জীবনে এমন একটা সময় আসে, যখন মায়ের মমতা সজলতা এত স্বাভাবিক বলেই আলো-জল-বাতাসের মত সুলভ মনে হয়। একজন অপরিচিত মেয়েকে মনে ধরলে তার সহজ স্বাভাবিক সত্তাকে পায়ের নিচের মাটির, মেটে খুরির জলের মতো সহজ ভেবে নিতে সময় লাগে। কাছে থাকলেও দূর- তার স্বচ্ছ সরল প্রকাশ ভানুমতীর খেলার মতোই আপতিত হচ্ছে কী সহজে- কিন্তু তবুও কীরকম আঁধার, কঠিন, নিবিড়।

এইসব ভেবে ভেবে কেমন কুন্ঠিত হয়ে পড়ত মাল্যবানের মন; মার কাছে ঘাট হয়েছে বলে তার প্রতি শ্রদ্ধায়, পথে-ঘাটে মনে ধরে গেছে নারীটির প্রতি উদাসীনতায় এবং নিজের প্রতি ধিক্কারে নিজেকে সে সজাগ করে রাখত। "

Jibanananda Das , মাল্যবান

52 " हज़ारों साल से राह चल रहा हूँ पृथ्वी के पथ पर
सिंहल के समुद्र से रात के अँधेरे में मलय सागर तक
फिरा बहुत मैं बिम्बिसार और अशोक के धूसर जगत में
रहा मैं वहाँ बहुत दूर अँधेरे विदर्भ नगर में
मैं एक क्लान्त प्राण, जिसे घेरे है चारों ओर जीवन सागर का फेन
मुझे दो पल शान्ति जिसने दी वह-नाटोर की बनलता सेन।

केश उसके जाने कब से काली, विदिश की रात
मुख उसका श्रावस्ती का कारु शिल्प-
दूर सागर में टूटी पतवार लिए भटकता नाविक
जैसे देखता है दारचीनी द्वीप के भीतर हरे घास का देश
वैसे ही उसे देखा अन्धकार में, पूछ उठी, ”कहाँ रहे इतने दिन?“
चिड़ियों के नीड़-सी आँख उठाये नाटोर की बनलता सेन।

समस्त दिन शेष होते शिशिर की तरह निःशब्द
आ जाती है संध्या, अपने डैने पर धूप की गन्ध पोंछ लेती है चील
पृथ्वी के सारे रंग बुझ जाने पर पाण्डुलिपि करती आयोजन
तब क़िस्सों में झिलमिलाते हैं जुगनुओं के रंग
पक्षी फिरते घर-सर्वस्व नदी धार-निपटाकर जीवन भर की लेन-देन
रह जाती अँधेरे में मुखाभिमुख सिर्फ़ बनलता सेन। "

Jibanananda Das , বনলতা সেন

53 " काली अँधेरी रात थी फाल्गुन की
पंचमी का चाँद भी डूब चुका था तब,
मरना तो उसे था ही,
सुना है
कल रात पोस्टमॉर्टेम के लिए ले गये उसे।

पास ही लेटी थी पत्नी और बच्चा भी था,
बिखरी थी चाँदनी चारों ओर, और था प्रेम, और थी आशा,
फिर भी ना जाने क्यों आया था नजर उसे एक भूत?
खुल गई थी आँखें उसकी या फिर बरसों से सोया ही नहीं था वह,
सोया हुआ है जो अब भयावह शवगृह के इस सुनसान अंधकार में।

क्या ऐसी ही नींद चाहा था उसने?
अँधेरे नम बसबसाते कमरे में सोया पड़ा है आज,
प्लेग से रक्तरंजित ढलके गरदन वाले चूहे जैसा,
कभी नहीं जागने के लिए।

“कभी उठोगे नहीं क्या
ज़िंदगी का असह्य भार और वेदना
और नहीं झेलोगे क्या?”
उसकी खिड़की से झाँक कर निःस्तब्धता ने
पूछा था, जब
चाँद भी हो चुका था विलीन उस जटिल अन्धकार में।

उल्लू तो सोने की तैयारियों में लग चुका था,
गली में टर्राता मेढ़क मगर मांग रहा था दो मुहूर्त और,
सुबह की लाली दस्तक देने जा रही थी उसी अनुराग से,
और मैं झेल रहा था चारों ओर से मसहरी का क्षमाहीन विरोध,
जो दिख ही नहीं रहा था इस धुंधले निरुद्देश्य अंधकार में,
मच्छर लेकिन तब भी जाग रहा था जीवन स्रोत की चाह में।

आकाश घनिष्ठ हो उठा और भी, मानो कोई एक विकीर्ण जीवन
नचा रहा हो उँगलियों पर उसके मन को,
दूर किसी बच्चे के हाथों में फंस कर मौत से लड़ते झींगुर का क्रंदन,
चाँद भी डूब गया,
और इस विचित्र अंधियारे में, तुम,
हाथों में पाश लिए खड़ी हो, एकाकी, उसी पीपल तले,
जानती हुई भी कि झींगुर, पक्षी और मानव एक नहीं हैं।

पीपल की शाखों ने किया नहीं विरोध?
हरे नर्म झूमते पत्तों से झाँककर किया नहीं प्रतिकार जुगनूओं ने?
गंध के सहारे ही ढूंढ कर पूछा नहीं था उल्लुओं ने – “बूढ़ा चाँद
तो बह गया बाढ़ में, चलो एक-दो चूहे ही पकड़ें”?
चीख कर बताया तो नहीं था उसी ने ये दर्दनाक खबर?

जीवन का ये आस्वाद,
पतझड़ की किसी शाम में महकता जौ,
सह नहीं सके ना?
अब इस शवगृह में आराम से तो हो?
इस शवगृह के दमघोंटू अन्धकार में
रक्तरंजित होंठ और चपटे माथे वाले किसी चूहे की तरह।

सुनो,
मृत्यु की कहानी फिर भी,
व्यर्थ नहीं जाता कभी किसी नारी का प्रणय और
विवाहित जीवन की साध,
समय के साथ आती है पत्नी और
फिर मधुबर्षा,
कभी कांपा नहीं जो शीत और भूख की वेदना से,
आज लेटा है
इस शवगृह में,
चित किसी टेबल पर

जानता हूँ,
हाँ, मैं जानता हूँ,
नारी मन में,
प्रेम, वात्सल्य, घर, नव परिधान,
अर्थ, कीर्ति, और आराम ही सब कुछ नहीं है,
इससे अलग भी कुछ है,
जो हमारे अंदर खेलता है,
और कर देता है हमें
क्लांत,
और क्लांत,
और भी क्लांत।

आज इस शवगृह में नहीं है वो क्लांति,
तभी तो आज लेटा है वह चित किसी टेबल पर यहाँ।

फिर भी रोज रात देखता हूँ मैं,
एक बूढ़ा उल्लू बैठता है पीपल की डालों पर,
पलकें झपकाता है और कहता है – “चाँद तो लगता है बह गया बाढ़ में,
अच्छा है,
चलो पकड़ें एकाध चूहे को ही”।

वो बूढ़ी नानी, आज भी वैसी ही है,
मैं भी हो जाऊंगा एक दिन उसकी तरह,
डूबा दूँगा इस बूढ़े चाँद को तब किसी चक्रवात में।

और फिर चलें जायेंगे हम दोनों,
शून्य कर
इस प्रिय संसार को। "

Jibanananda Das , Selected Poems

55 " حسنا ، أنت جزيرة نائية
بالقرب من نجوم بعد الظهر.
بصق القرفة وبنيرا هناك
هناك العزلة.
دم هذا العالم هو نجاح الدم
صحيح، لكن الحقيقة الأخيرة ليست صحيحة.
كالكوتا يوم واحد كالكوتا سيكون tilatama.
لكن قلبي قريب منك.

اليوم ، يستدير الكثير من النفوس المشاكسة
شعوب العالم مثل البشر
بينما يعطي الحب ،
رأيت في يدي ربما قتل
وقع الاخوة والاخوات في الحب.
المرض الأعمق للأرض الآن ؛
لا يزال الناس مدينون للعالم.

السفن تأتي في ضوء الشمس من ميناءنا
رأى المحصول الذي تم التوصل إليه.
حبيبات عدد لا يحصى من البشر ؛
عجب الذهب من الذبيحة
والدنا ، مثل بوذا كونفوشيوس ، يعيش مثلنا
يضع البكم. ومع ذلك ، فإن الدعوة للعمل الدامي في Charidas.

الوعي ، نور هذا الطريق - سيكون نظام العالم ؛
هو رجل من قرون عديدة.
هذه الرياح هي أشعة الشمس المطلقة.
تقريبا بقدر المجتمع الإنساني الجيد
متعب بحار متعب مثلنا في متناول اليد
لن أفعل ذلك اليوم ، في نهاية الليل.

عندما جئت إلى الأرض في تربة الأرض ،
إذا كنت لا تشعر بالرضا ؛
لقد جاء لفهم الأرباح العميقة
يمس الندى الجسم في الفجر.
لقد رأيت ذلك لن يحدث للناس -
كل شروق الشمس الأبدي على ضوء القمر من الليل الأبدي. "

Jibanananda Das , Selected Poems