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उर्वशी QUOTES

9 " पर, तुम भूल रही हो रम्भे! नश्वरता के वर को;
भू को जो आनन्द सुलभ है, नहीं प्राप्त अम्बर को।
हम भी कितने विवश! गन्ध पीकर ही रह जाते हैं,
स्वाद व्यंजनों का न कभी रसना से ले पाते हैं।
हो जाते हैं तृप्त पान कर स्वर-माधुरी श्रवण से,
रूप भोगते हैं मन से या तृष्णा-भरे नयन से।
पर, जब कोई ज्वार रूप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा में जीवन पड़ जाता है, उस पीड़ा से बचने की तब राह नहीं मिलती है,
उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है।
किन्तु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नहीं है,
रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नहीं है। नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,
रुके गन्ध पर या बढ़कर फूलों को गले लगाए।
पर, सुर बनें मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते हैं,
गन्धों की सीमा से आगे देव न जा सकते हैं। क्या "

Ramdhari Singh 'Dinkar' , उर्वशी