Home > Work > Karma Yoga: the Yoga of Action
21 " स्पर्धा से ईर्ष्या उत्पन्न होती है और उससे हृदय की कोमलता नष्ट हो जाती है। असंतुष्ट तथा तकरारी पुरुष के लिए सभी कर्तव्य नीरस होते हैं। उसे तो कभी भी किसी चीज से संतोष नहीं होता और फलस्वरूप उसका जीवन दूभर हो उठना और असफल हो जाना स्वाभाविक है। "
― Vivekananda , Karma Yoga: the Yoga of Action
22 " In the ocean we cannot raise a wave without causing a hollow somewhere else. "
23 " आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो परम शांत एवं निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म का, प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल की शांति एवं निस्तब्धता का अनुभव करते हैं। उन्होंने संयम का रहस्य जान लिया है—अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके हैं। किसी बड़े शहर की भरी हुई सड़कों के बीच से जाने पर भी उनका मन उसी प्रकार शांत रहता है, मानो वे किसी निःशब्द गुफा में हों, और फिर भी उनका मन सारे समय कर्म में तीव्र रूप से लगा रहता है। यही कर्मयोग का आदर्श है, और यदि तुमने यह प्राप्त कर लिया है, तो तुम्हें वास्तव में कर्म का रहस्य ज्ञात हो गया। "
24 " सर्वश्रेष्ठ पुरुष तो कार्य कर ही नहीं सकते, क्योंकि उनमें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं होती । जो आत्मा में ही आनन्द करते है, जो आत्मा में ही तृप्त रहते हैं और जो आत्मा के साथ सदा के लिए एक हो गये हैं उनके लिए कोई कर्म शेष नहीं रह जाता । यही सर्वश्रेष्ठ मानव हैं । इनके अतिरिक्त अन्य सभी को कर्म करना पड़ेगा । पर इस प्रकार कर्म करते समय हमें यह कभी न सोचना चाहिए की हम इस संसार में भी किसी छोटे से छोटे प्राणी तक की तनिक भी सहायता कर सकते हैं । असल में वह हम बिलकुल नहीं कर सकते । संसाररूपी इस शिक्षालय में परोपकार के इन कार्यों द्वारा तो हम केवल अपनी ही सहायता करते हैं । कर्म करने का यही सच्चा दृष्टिकोण है । अतएव यदि हम इसी भाव से कर्म करें यदि सदा यही सोचें कि इस समय जो हम कार्य कर रहे हैं वह तो हमारे लिए एक बड़े सौभाग्य की बात है तो फिर हम कभी भी किसी वस्तु में आसक्त न होंगे । इस विश्व में हम तुम जैसे लाखों लोग मन ही मन सोचा करते हैं कि हम एक महान व्यक्ति है; परन्तु एक दिन हमारी मौत हो जाती है और बस पाँच मिनट बाद ही संसार हमें भूल जाता है । किन्तु ईश्वर का जीवन अनन्त है । ‘ ‘यदि इस सर्वशक्तिमान प्रभु की इच्छा न हो, तो एक क्षण के लिए भी कौन जीवित रह सकता है, एक क्षण के लिए भी कौन साँस ले सकता है?” वे ही सतत कर्मशील विधाता हैं । समस्त शक्ति उन्हीं की है और उन्हीं की आज्ञावर्तिनी है । "
25 " When it is acute, we call it disease; when it is chronic, we call it nature. It is a disease "