" विट्ठलदास—यह भी तुम्हारी भूल है। तुम यहाँ चाहे और किसी की गुलाम न हो, पर अपनी इंद्रियों की गुलाम तो हो? इंद्रियों की गुलामी उस पराधीनता से कहीं दुःखदायिनी होती है। यहाँ तुम्हें न सुख मिलेगा, न आदर। हाँ, कुछ दिनों भोग-विलास कर लोगी, पर अंत में इससे भी हाथ धोना पड़ेगा। सोचो तो, थोड़े दिनों तक इंद्रियों को सुख देने के लिए तुम अपनी आत्मा और समाज पर कितना बड़ा अन्याय कर रही हो? "
― Munshi Premchand , Sevasadan