" कोई रिश्तेदार नही होता, जिसके यहाँ हम ठहर सकें या उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें। तीसरे, शीतकाल में वहाँ इतनी अधिक सर्दी होती है कि आप जमती गंगा में अपने पाँव नहीं रख सकते। चौथे, ग्रीष्मकाल में गरमी धरती को इतना अधिक तपा देती है कि आप पूजा के लिए नंगे पाँव चल भी नहीं सकते। पाँचवें, यदि वहाँ के स्थानीय लोगों को मालूम हो जाए कि हम लोग बाहरी हैं तो अकसर वे हमें ठगने की कोशिश करते हैं। ऐसी किंवदंतियाँ भी हैं कि लोग वहाँ जाकर वापस नहीं लौटते। अतः जब कोई काशी से लौटता है तो हम उसे सौभाग्यशाली समझते हैं। यही कारण है कि वे हमें दावत देते हैं और हम उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं।’’ मैंने व्यग्रता से पूछा, ‘‘अव्वा, आप उन्हें क्या देने जा रही हैं?’’ अव्वा ने अपना बैग खोला। उसके अंदर ढेर सारे फल और फूलों के अतिरिक्त एक सूती साड़ी थी। ‘‘और वे हमें क्या देंगी?’’ ‘‘हमें काशी का धागा और थोड़ा गंगाजल मिलेगा। "
― Sudha Murty , Three Thousand Stitches: Ordinary People, Extraordinary Lives