Home > Author > Osho >

" आदर्श-विहीन जीवन कैसा है? उस नाव की भांति जिसमें मल्लाह न हों या कि हों तो सोए हों। और यह स्मरण रहे कि जीवन के सागर पर तूफान सदा ही बने रहते हैं। आदर्श न हो तो जीवन की नौका को डूबने के सिवाय और कोई विकल्प ही नहीं रह जाता है। श्वाइत्जर ने कहा है: ‘‘आदर्शों की ताकत मापी नहीं जा सकती। पानी की बूंद में हमें कुछ भी ताकत दिखाई नहीं देती। लेकिन उसे किसी चट्टान की दरार में जम कर बर्फ बन जाने दीजिए, तो वह चट्टान को फोड़ देगी। इस जरा से परिवर्तन से बूंद को कुछ हो जाता है और उसमें प्रसुप्त शक्ति सक्रिय और परिणामकारी हो उठती है। ठीक यही बात आदर्शों की है। जब तक वे विचार-रूप बने रहते हैं, उनकी शक्ति परिणामकारी नहीं होती। लेकिन जब वे किसी के व्यक्तित्व और आचरण में ठोस रूप ले लेते हैं, तब उनसे विराट शक्ति और महत परिणाम उत्पन्न होते हैं।’’ ‘आदर्श’ अंधकार से सूर्य की ओर उठने की आकांक्षा है। जो उस आकांक्षा से पीड़ित नहीं होता है, वह अंधकार में ही पड़ा रह जाता है। लेकिन, आदर्श आकांक्षा मात्र ही नहीं है। वह संकल्प भी है। क्योंकि, जिन आकांक्षाओं के पीछे संकल्प का बल नहीं, उनका होना या न होना बराबर ही है। और, आदर्श संकल्प मात्र भी नहीं है, वरन उसके लिए सतत श्रम भी है; क्योंकि सतत श्रम के अभाव में कोई बीज कभी वृक्ष नहीं बनता है। मैंने सुना है: ‘‘जिस आदर्श में व्यवहार का प्रयत्न न हो वह फिजूल है; और जो व्यवहार आदर्श-प्रेरित न हो वह भयंकर है। "

Osho , पथ के प्रदीप - Path Ke Pradeep: जला तो दिए हैं जलाए रखना


Image for Quotes

Osho quote : आदर्श-विहीन जीवन कैसा है? उस नाव की भांति जिसमें मल्लाह न हों या कि हों तो सोए हों। और यह स्मरण रहे कि जीवन के सागर पर तूफान सदा ही बने रहते हैं। आदर्श न हो तो जीवन की नौका को डूबने के सिवाय और कोई विकल्प ही नहीं रह जाता है। श्वाइत्जर ने कहा है: ‘‘आदर्शों की ताकत मापी नहीं जा सकती। पानी की बूंद में हमें कुछ भी ताकत दिखाई नहीं देती। लेकिन उसे किसी चट्टान की दरार में जम कर बर्फ बन जाने दीजिए, तो वह चट्टान को फोड़ देगी। इस जरा से परिवर्तन से बूंद को कुछ हो जाता है और उसमें प्रसुप्त शक्ति सक्रिय और परिणामकारी हो उठती है। ठीक यही बात आदर्शों की है। जब तक वे विचार-रूप बने रहते हैं, उनकी शक्ति परिणामकारी नहीं होती। लेकिन जब वे किसी के व्यक्तित्व और आचरण में ठोस रूप ले लेते हैं, तब उनसे विराट शक्ति और महत परिणाम उत्पन्न होते हैं।’’ ‘आदर्श’ अंधकार से सूर्य की ओर उठने की आकांक्षा है। जो उस आकांक्षा से पीड़ित नहीं होता है, वह अंधकार में ही पड़ा रह जाता है। लेकिन, आदर्श आकांक्षा मात्र ही नहीं है। वह संकल्प भी है। क्योंकि, जिन आकांक्षाओं के पीछे संकल्प का बल नहीं, उनका होना या न होना बराबर ही है। और, आदर्श संकल्प मात्र भी नहीं है, वरन उसके लिए सतत श्रम भी है; क्योंकि सतत श्रम के अभाव में कोई बीज कभी वृक्ष नहीं बनता है। मैंने सुना है: ‘‘जिस आदर्श में व्यवहार का प्रयत्न न हो वह फिजूल है; और जो व्यवहार आदर्श-प्रेरित न हो वह भयंकर है।